शहरग में से आ रही है
मधुमक्खी गुजरने की आवाज़
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी स्पेस विचलित हो रही है
सफ़ेद कमीज़ के नीचे पड़े स्टील के निशान से
भर रहा है कमरा
यह किस तरह का डंक है ,
छिद्री जा रहीं है मेरी चमड़ी की बारीक परत
टूट रहे हैं रोम मेरे
और मेरी सांस डूब रही है
फ़ैल रही है आवाज़ मेरे भीतर
और वहाँ जमा हो रही है
जहाँ इस धरती का सारा धुआँ पहुँचता है
मेरी सिगरेट के फ़िल्टर से गुजर कर
ऐशट्रे में भर रहा है टूट चुके प्रेम संबधों का काला शहद
मिल ही जाएगी ये आवाज़ एक दिन
धुआँ छानते, जन्म बदलते
शहद चख़ते
तुम आना और इसका गला दबा देना
पर इस वक़्त
धरती का सारा कंपन अपने पंखो पर उठा के
शहरग से गुजर है रानी मक्खी
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शिवदीप